Friday, July 30, 2010

खता..

तुम्हे चाहने की खता कब हुई
मोहब्बत हमारी जवाँ कब हुई
है मुझको ये बिलकुल खबर ही नहीं
तू जीने की मेरी वजह कब हुई

तेरे हुस्न का है ये जादू चला
ये दुनिया महेकता जहाँ कब हुई
है आलम ये रातों का अब आजकल
पता ही नहीं की सुवह कब हुई

मिलना बिछड़ना तो तकदीर है
सब पे मुई मेहरबान कब हुई
यादों में इतना समायी है तू
पल भर भी हमसे जुदा कब हुई

4 comments:

  1. waah.kya bat h.subhanallahhh

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  2. बेहद ख़ूबसूरती से आपने अपनी रचना रची है...बधाई...

    नीरज

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  3. kya baat hai ,,kya baat hai.....

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  4. kya khub likhate hai aap
    aapki kavita ki tarif me mere pas shabd nhi
    bahut hi shandar

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