तुम्हे चाहने की खता कब हुई
मोहब्बत हमारी जवाँ कब हुई
है मुझको ये बिलकुल खबर ही नहीं
तू जीने की मेरी वजह कब हुई
तेरे हुस्न का है ये जादू चला
ये दुनिया महेकता जहाँ कब हुई
है आलम ये रातों का अब आजकल
पता ही नहीं की सुवह कब हुई
मिलना बिछड़ना तो तकदीर है
सब पे मुई मेहरबान कब हुई
यादों में इतना समायी है तू
पल भर भी हमसे जुदा कब हुई
waah.kya bat h.subhanallahhh
ReplyDeleteबेहद ख़ूबसूरती से आपने अपनी रचना रची है...बधाई...
ReplyDeleteनीरज
kya baat hai ,,kya baat hai.....
ReplyDeletekya khub likhate hai aap
ReplyDeleteaapki kavita ki tarif me mere pas shabd nhi
bahut hi shandar