Sunday, May 20, 2012

जब भी..

हाँथ बढाकर रोकू तुझको
हसरत कितनी बार रही 
कुछ मेरी किस्मत तुम ठहरी 
जब भी हद के पार रही 

सुवह को मिलने की खातिर 
हम रात नहीं सो पाते थे 
फिर दिन निकले मायूसी में 
ना जाने कितनी रात हुई 

दो दिलों ने हामी भर दी थी 
इस सच से तुम अनजान नहीं 
फिर दुनिया रस्म रिवाजों की 
तुमको कब से परवाह हुई 

कुछ तो था मालूम तुम्हे 
हम भी तो कहने वाले थे 
अफ़सोस रहा बेरुखी से क्यों 
ये ख़त्म कहानी यार हुई 

हाँथ बढाकर रोकू तुझको
हसरत कितनी बार रही ...



5 comments:

  1. हाँथ बढाकर रोकू तुझको
    हसरत कितनी बार रही ...

    बहुत सुंदर रचना,,,अच्छी प्रस्तुति,,,,
    दीप जी,.,,समर्थक बन गया हूँ आपभी बने तो खुशी होगी,,,,,,,

    RECENT POST काव्यान्जलि ...: किताबें,कुछ कहना चाहती है,....

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  2. दो दिलों ने हामी भर दी थी
    इस सच से तुम अनजान नहीं
    फिर दुनिया रस्म रिवाजों की
    तुमको कब से परवाह हुई

    Shaandaar Rachana...

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  3. अद्भुत...दिल को छूती मार्मिक रचना...बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  4. बहुत ही सुन्दर रचना...

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  5. भीतर तक जाती है कविता.

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