Sunday, May 20, 2012

जब भी..

हाँथ बढाकर रोकू तुझको
हसरत कितनी बार रही 
कुछ मेरी किस्मत तुम ठहरी 
जब भी हद के पार रही 

सुवह को मिलने की खातिर 
हम रात नहीं सो पाते थे 
फिर दिन निकले मायूसी में 
ना जाने कितनी रात हुई 

दो दिलों ने हामी भर दी थी 
इस सच से तुम अनजान नहीं 
फिर दुनिया रस्म रिवाजों की 
तुमको कब से परवाह हुई 

कुछ तो था मालूम तुम्हे 
हम भी तो कहने वाले थे 
अफ़सोस रहा बेरुखी से क्यों 
ये ख़त्म कहानी यार हुई 

हाँथ बढाकर रोकू तुझको
हसरत कितनी बार रही ...